जेट स्ट्रीम Jet Stream विभिन्न जेट धाराओं के प्रकार एवं जेट धाराओं का विकास चक्र

जेट स्ट्रीम Jet Stream विभिन्न जेट धाराओं के प्रकार एवं जेट धाराओं का विकास चक्र

जेट स्ट्रीम

जेट स्ट्रीम क्षोभसीमा के निकट के चारों और वायु का सर्फिलाकार प्रवाह है जिसकी औसत लंबाई 1600 से 390 किमी. औसत धरातल से ऊँचाई 8 से 12 किमी. औसत गहराई 1 से डेढ़ किमी., चौड़ाई 80 से 150 किमी. है।


जेट स्ट्रीम की खोज द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उस समय हुई जब अमेरिकी बम वर्षक विमान जापान की और पूर्व से पश्चिम की और जा रहे थे। जेट विमान को हवाओें के विपरीत रुख का सामना करना पड़ा और विमानों की गति में अत्यन्त कमी दर्ज की गई और फिर लौटते समय पश्चिम से पूर्व गति में वृद्धि दर्ज कि गई। इन हवाओं का बाद में वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया और इन हवाओं का नामकरण जेट स्ट्रीम कर दिया गया।

विभिन्न जेट धाराओं की उत्पत्ति के विभिन्न कारक-
1 उपोष्ण कटिबंधीय जेट स्ट्रीम- इस स्ट्रीम की उत्पत्ति क्षोभसीमा के निकट 30 से 35 डिग्री  अक्षाशों के ऊपर प्रति पछुवा पवनों के अभिसरण से होती है ये सपूंर्ण ग्लोब पर सर्वाधिक स्थाई एवं सबसे लंबी जेट स्ट्रीम है जो कि लबंवत वर्ष भर नियत बनी होती है लेकिन सूर्य के उत्तरायण व दक्षिणायन के कारण इनमें उत्तर व दक्षिण की और विस्थापन देखा जाता है। इसी कारण शीतकाल में जेट स्ट्रीम पामीर की गांठ से टकराकर इसका एक भाग हिमालय के दक्षिण की और प्रवाहित होता है चूँकी ये जेट स्ट्रीम अपने प्रवाह के कारण भूमध्य सागर से आर्द्रता ग्रहण करती है जिससे भारत के उत्तरी पूर्वी भाग में शीतकालीन वर्षा प्राप्त होती है।
जेट स्ट्रीम सर्फिलाकार पथ में गति करती है, जिससे इसमें श्रृग एवं गर्त का निर्माण होता है। इसके इस कारण श्रृग चक्रवातीय दशाओं एवं निम्नदाब की स्थिति उत्पन्न होती है जबकि गर्त के नीचे धाराओं पर उच्चदाब एवं प्रतिचक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होती है जिससे मरुभूमि का निर्माण होता है।

2 उपध्रुवीय- जेट स्ट्रीम का विकास 60-65 डिग्री अक्षांशों के निकट उष्ण पछुवा पवनों एवं ठंडी धुवीय पूर्वा के अभिसरण से होता है ये मुख्य रुप से महासागरों में शीतकाल में विकसीत होती है क्योकि धु्रवीय पूर्वा पवने शीतकाल में सशक्त होती है। इसके विकास क्रम की चार अवस्थाओं में विभक्त किया गया है।

प्रथम अवस्था- इसमें गर्म पछुवा एवं ठंडी पूवा अभिसरित होती है लेकिन तापमान की विभिन्नता के कारण एक सरल रेखा के रुप में स्तैथिक तरंग का निर्माण होता है।

द्वितीय अवस्था- इसमें ठंडी वायु गर्म वायु के क्षेत्र में गर्म जिससे ज्यावक्रियता की स्थिति होती है जो रासबी तरंग कहलाती है।

तृतीय अवस्था- इसमें गर्म वायु ठंडी वायु के क्षेत्र में ठंडी वायु गर्म वायु के क्षेत्र में आगे की और प्रवेश करने पर रोजवी तरंग का निर्माण होता है। एवं जेट का निर्माण होता है तथा जेट में श्रृग के नीचे गर्त के आगे शीत चक्रवात का निर्माण होता है।

चतुर्थ अवस्था- कालांतर में ठंडी वायु का कुछ भाग निम्न अक्षाशों की और तथा गर्म वायु का कुछ भाग उच्च अक्षाशों की विलिन हो जाता है तथा पुनः स्तैथिक दशाएं विद्यमान हो जाती है।

3 ध्रुवीय जेट/रात्री जेट- ध्रुवों के ऊपर 10 से 15 किमी की ऊँचाई पर 6 महीने शीत रात्री में भी सूर्यातप ओजोन सस्तर को निरंतर गर्म करता है लेकिन धरातल के निकट सूर्यातप की प्राप्ती नही होने के कारण तापीय विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होती है साथ ही उच्च कोरियोलिस बल के कारण धु्रवीय रात्रि जेट का निर्माण होती है इससे ध्रुवीय क्षेत्रों में धरातीय क्षेत्र पर उच्चदाब एवं प्रतिचक्रवात स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे शीत लहर उत्पन्न हो जाती है जो की शीतकाल में कनाडा, युएसए का उत्तरी भाग एवं साइबेरियाई क्षेत्र में देखा जा सकता है।
4 उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट- सूर्य के उत्तरायण के समय तिब्बत के पठार पर निम्नदाब की स्थिति उत्पन्न हो जाती है क्योकि यहाँ वनस्पति की अनुपस्थिति एवं पथरिला क्षेत्र होने के कारण  तापमान अधिक पाया जाता है जिससे चक्रवातीय दशांए उत्पन्न होती है लेकिन पठार से 4-5 किमी. ऊँचाई पर उच्चदाब की स्थिति प्राप्त होती है जिससे प्रतिचक्रवातीय दशाएं उत्पन्न होती है जिससे एक धारा दक्षिण की और गतिशील होकर प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर से प्रवाहित होते हुए सोमालिया के पूर्वी तट अवतलित होती है जो की भारत में आने वाले दक्षिणी-पश्चिमी मानसून को सुदृढ़ता प्रदान करती है।
फीडर लेड जेट- ये मेडागास्कर एवं अफ्रीका के पूर्वी तट के मध्य मोजाम्बिक चैनल पर तापीय विरोधाबास के कारण उत्पन्न होती है जो की भारतीय मानसून पर नकारात्मक स्थिति उत्पन्न हो जाती है।


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