भारतीय मानसून की उत्पत्ति

भारतीय मानसून की उत्पत्ति

मानसून एक द्वितीयक संचरण है जो उत्तर दक्षिण व्यापारिक पवनों के उष्मा गतिकिय परिवर्तन के कारण ग्रीष्मकाल में दक्षिण पश्चिम दिशा से शीतकाल में उत्तर पूर्व दिशा से संचारित होता है। इसका संबंध सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायन से है। इस दौरान दक्षिण पूर्वी व्यापारिक पवनों में 120 डिग्री तक विक्षोप उत्पन्न होता है। तथा I T C Z का 25 डिग्री उत्तरी अक्षांश तक विथापन होता है।

दक्षिण पश्चिम मानसून की उत्पत्ति- सूर्य के उत्तरायण होने से तिब्बत के पठार पर हेठ जोन का निर्माण होता है। तथा वायु गर्म होकर 6 से 8 किमी. की ऊँचाई तक उढ़ती है। तथा प्रतिचक्रवातीय बाह्यय प्रवाह के रुप में उत्पन्न होता है। जिसकी एक शाखा पूर्वी जेट के रुप में कोरियोलिस बल के प्रभाव से विध्यन पर्वत श्रृखला के समान्तर स्थापित होता है। जो आगे उत्तरी सयाद्री से होकर सोमालिया तट के निकठ अवतलित होत है। तथा उच्च दाब का निर्माण होता है
सूर्य के उत्तरायण से I T C Z  भी 25 डिग्री पर स्थापित होता है। ये आईटीसीजेट निम्न दाब का क्षेत्र है जो व्यापारिक पवनों को अभिसारित करता है जिससे दक्षिणी पश्चिमी मानसून भारतीय महाद्वीप पर स्थित I T C Z की और आकृषित होता है। इसके अतिरिक्त भारतीय महाद्वीप पर उच्च तापमान के कारण निम्न दाब के केन्द्र का निर्माण होता है जिससे भ्ज्ञी दक्षिणी पश्चिमी मानसून आकृषित होता है।

एल-निनों (El Nino)
मध्य प्रशांत महासागर की गर्म जलधाराएं दक्षिणी अमेरिका के तट की और प्रवाहित होती है और पीरु की ठंडी धाराओं का स्थान ले लेती है पीरु के तट पर इन गर्म धाराओं की उपस्थिति एल-निनों कहलाता है।
एल-निनों का शाब्दिक अर्थ बालक ईसा  है, क्योकि यह धारा दिसंबर के महीने में क्रिसमस के आस-पास नजर आती है। पेरु दक्षिणी गोलार्द्ध में दिसंबर गर्मी का महीना होता है। एल-निनों को विपरीत धारा (counter current)  के नाम से जाना जाता है; वर्तमान में एल-निनों को एक मौसमी घटना या परिघटना (weather event or phenomenon) के रुप में लिया जाता है। इसका संबंध उष्ण कटिंबंधी पूर्वी प्रशांत महासागरीय जल तापमान में वृद्धि से है एल-निनों वैश्विक जलवायु में विनाशक विसगतिया उत्पन्न करता है जिसके कारण पेरु तट पर सामान्य से बहुत अधिक वर्षा होती है।

ला-निनो (La Nina)
इसका अर्थ है ठंडी बहन ये एल-निनों का विपरीतात्मक शब्द है जब पेरु तट के निकट जल का तापमान 2-4 डिग्री शीतलित हो जाता है।
सामान्य वर्ष में पेरु के तट पर अपतटिय दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक पवनों के प्रभाव से शीत जल का उदवेलन होता है एवं तापमान सामान्य से 2-3 डिग्री कम हो जाता है। एवं ये पवने  गर्म विषुवतीय जल को प्रभावित कर इण्डोनेशिया के पास एकत्रित करते है इससे यहाँ का तापमान 2-3 डिग्री उच्च एवं समुद्र का तल लगभग 90 सेंटीमीटर ऊपर उढ़ता है। इस प्रकार इण्डोनेशिया पर निम्न दाब (L.P)  केन्द्र एवं पेरु तट पर उच्च दाब (H.P) केन्द्र का निर्माण होता है।
इण्डोनेशिया तट से उढ़ने वाली वायु पेरु व सोमालिया के तट के पास अवतलित होती है एवं उच्च दाब का निर्माण करती है। 'उष्ण कटिबंधीय कोशिका' का निर्माण होती है।

Positive Indian dipole

हिन्द महासागर के पश्चिमी भाग में उच्चदाब एवं पूर्वी हिन्द महासागर में निम्न दाब प्राप्त होता है जिसे Positive Indian dipole कहते है। इससे भारतीय मानसून अच्छा होता है।
एल-निनों वर्ष में दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों के क्षिण होने से पेरु तट पर शीत जल का उदेवलन बंद हो जाता है जिससे पेरु तट पर उच्च दाब की स्थिति एवं इण्डोनेशिया तट पर निम्नदाब की स्थिति एवं इण्डोनेशिया तट के निकट जल का संचयन जैसी प्रकिया समाप्त हो जाती है एवं इण्डोनेशिया के तट पर 2-3 डिग्र्री  तापमान कम हो जाता है तथा उच्चदाब केन्द्र विकसित होती है जिससे उपरी वायुमंडल क्षेत्र में इण्डोनेशिया से पेरु तट की और पवने गतिशील होती इसे दक्षिणी दौलन कहते है।

यहाँ वाकर शैल के व्युत्क्रमण से विषुवतिय पवन इण्डोनेशिया से पेरु की और सक्रिय होती है जो समुद्र तल से 2-3 सेंटीमीटर नीचे गर्म अंतः धारा का निर्माण करती है जिसे केलविन तरंग कहते है। यह केलविन धारा पेरु तट से टकराकर पुनः दक्षिणी-पश्चिमी की और लौटती है जिसें रोजवी तंरग कहते है।

इसी प्रकार उत्तरी प्रशांत महासागर में रेजवी तंरग से जल उत्तरी मध्य प्रशांत महासागर में एकत्रित हो जाता है इस दौरान अलनिनों प्रभाव  समाप्त  हो जाता है जिससे पेरु तट पर पुनः ठंडें जल का उदवेलन (Upwalling) तथा इण्डोनेशिया तट के पास भी ठंडा जल प्राप्त होता है। इस प्रकार मध्य प्रशांत महासागर  में गर्म जल तथा पूर्वी  व पश्चिमी प्रशांत महासागर में शीत जल की दशा बनती है जिसे मोडोकी  कहते है जिसके प्रभाव से जापान तट पर  उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की सख्या बढ़ जाती है।

एल-निनों का भारतीय मानसून पर प्रभाव
एल-निनों  प्रभाव से इण्डोनेशिया के पूर्वी तट पर उच्चदाब की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिससे Positive Indian dipole विभंग जो जाता है जिससे अफ्रीका के पूर्वी तट पर उच्चदाब की स्थिति कमजोर होती है एवं दक्षिणी-पश्चिमी मानसून क्षीण होता है।

मानसून का फटना- यह एक आकस्मिक घटना है जो लगभग 1 जून को मालाबार तट पर सघन वर्षा गर्जन तथा कपासी वर्षक एवं तड़ितझंझा के रुप में प्राप्त होती है।
मानसून का आगमन एवं विस्तार
1. अरब सागर की शाखा- यह पश्चिमी घाट के तीर्यक होता है। अतः पर्वतीय वर्षा उत्पन्न करता है। जो दक्षिण से उत्तर की और जाने पर घटती है मालाबार तट पर लगभग 300 सेमी. वर्षा, कोकण तट पर 250 सेमी वर्षा काठियावाड़ एवं माउट आबू में यह 75-100 सेमी. वर्षा करती है। अरब सागर की एक शाखा की धारा नर्मदा व ताप्ती नदी की घाटी तें प्रवेश कर अमरकंटक में 80 सेमी. वर्षा प्रदान करती है। अरब सागर की शाखा से राजस्थान में 30-40 सेमी. वर्षा होती है क्योकि- अरावली का अरब शाखा के समांतर होना, अरावली की ऊँचाई कम होने के कारण मानसूनी पवनों में अवरोधक उत्पन्न नही करना, मरुभूमी क्षेत्र में तापमान विलोमता की दशा का होना जिससे मानसूनी पवनों की सापेक्ष आर्द्रता घट जाती है।

2. ब्ंगाल की खाड़ी की शाखा- कोरोमंडल के तट से समांतर होते बंगाल की खाड़ी से जल ग्रहण कर अराकानयोमा से टकराती है जिससे पूर्वाचल की पहाड़ियों में 200 सेमी. तक वर्षा होती है। इसकी एक शाखा मेघालय में स्थित कीपाकार पहाड़ियाँ गारो, खासी, जयन्तियाँ में फस जाती है।या अवरोधित हो जातजी है जिससे मासीनराम में लगभग 1400 सेमी. वर्षा करती है।

ब्ंगाल की खाड़ी की शाखा ब्रह्मपुत्र घाटी असम घाटी में प्रवेश करती है। तथा वहा 150 सेमी. तक वर्षा करती है। आगे यह पश्चिम की और शिवालिक पर्वत पदीय क्षेत्रों में घटती वर्षा की मात्रा के साथ गतिशील होती है इस दौरान गंगा के मैदान में यह बिहार में 100-120 सेमी. वर्षा करती है तथा आगे चलकर पंजाब में यह शिवालिक के निकट अरब सागर की शाखा से जुड़ जाती है जिससे वहां 100 सेमी. तक वर्षा करती है।
दक्कन के पठार पर वृष्टिछाया क्षेत्र बनता है जहा वर्षा  40-60 सेमी तक प्राप्त होती है परंतु उत्तर व मध्य भारत छतिसगंढ़, झारखंड, उड़ीसा, तेलगाना, आंध्र प्रदेश मानसूनी पवनों से वर्षा प्राप्त न होकर अडमान सागर में बनने वाले उष्ण कटिबंधीय विक्षोभ अथवा चक्रवातों से होती है। विक्षोभ आईटीसीजेड में प्रवेश कर पूर्व-पश्चिम की और गतिशील होते हुए इन क्षेत्रों में वर्षा करते है।
मानसून का टूटना- यदि मानसून के दौरान आईटीसीजेट शिवालिक पर प्रतिस्थापित दो तीन सप्ताह के लिए शिवालिक पर मूसलाधार वर्षा होती है जबकि गंगा के मैदान में शुष्क स्थिति देखने को मिलती है लेकिन गंगा के मैदान में प्रवाहित होने वाली नदियों का उदगम मुख्यतः शिवालिक क्षेत्र होने के कारण इन में बाढ़ की स्थिति देखने को मिलती है।
दूसरी तरफ पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में कुछ सप्ताह के लिए यदि अरब सागर की शाखाएँ पश्चिमी घाट के समांतर गतिशील हो एवं वर्षा न करें इस स्थिति को मानसून का टूटना कहते है।
मानसून का प्रत्यावर्तन/मानसून का लौटना- इसका प्रारम्भ  1 सितबंर के बाद पश्चिमी राजस्थान से होता है। इसके प्रमुख कारण- सूर्य का दक्षिणायन,
I T C Z का विषुवत रेखा की ओर विस्थापन
पूर्वी जेट का विलुप्त होना
उपोष्ण कटिबंधीय जेट का पामिर की गाठ से टकराकर दक्षिण की और विस्थापन
उत्तरी पूर्वी मानसून- 1 दिसबंर के बाद लौटता हुआ मानसून बंगाल की खाड़ी पर आच्छादित हो जाता है एवं कोरियोलिस बल के प्रभाव उत्तरी पूर्वी मानसून के रुप में कोरोमंडल तट पर 100 सेमी. तक वर्षा करता है। इसकी कारण कोवेरी नदी में शीतकाल में भी प्रयाप्त जल स्तर बना रहता है। इस मानसून से कुछ वर्षा नीलगिरी की पहाड़ियों पर भी प्राप्त होती है।
पश्चिमी विक्षोभ- सहारा की गर्म एवं यूरोप की ठंडी वायुराशियाँ भूमध्य सागरीय क्षेत्र में अभिसारित होकर समशीतोष्ण चक्रवातों की दशाये बनती है। ये चक्रवात उपोष्ण कटिबंधीय जेट द्वारा भूमध्य सागर व कैस्पियन सागर से आर्द्रता ग्रहण करते है हुए पूर्व की और गतिशील होती है  जों अफगानिस्तान उत्तरी पाकिस्तान तथा भारत में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड पंजाब हरियाणा एवं उत्तरी राजस्थान में वर्षा करते है।
हिमालय क्षेत्र मं पश्चिमी विक्षोभ से होने वाली हिम वर्षा उत्तर भारत में वर्ष भर प्रवाहित होने वाली नदीयों का मुख्य स्त्रोत है।
मानसून पूर्व वर्षा- मार्च से मई तक होने वाली तड़ितझंझा के रुप में होती है इस वर्षा की उत्पत्ति सूर्य के उत्तरायण से संबंधित है। इसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न नामों से जाना  जाता है।
1 आम्र वर्षा- केरल एवं तटीय कर्नाटक आमों को शीघ्र पकाती है।
2 फूलों वाली बौछार- इस वर्षा से केरल व निकटवर्ती कहवा उत्पादक क्षेत्रों में कहवा के फूल खिलने लगते है।
3 काल बैशाखी असम और पश्चिमी बंगाल में बैशाख के महिने में चलने वाली भयकर विनाशकारी वर्षायुक्त पवने है असम में इन्हें बारडोली छीड़ा कहा जाता है।

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